Pandavo ka Draupdi sahit paramdham Gaman Mahabharat ki Kahani – भगवान श्री कृष्ण के परमधाम जाने की बात सुनकर तो इन्होंने वन जाने का दृढ़ निश्चय कर लिया और अर्जुन के पौत्र कुमार परीक्षित को राजगद्दी पर बैठाकर तथा कृपाचार्य एंव धृतराष्ट्र को उनकी देखभाल में नियुक्त कर वे अपने चारों भाइयों व द्रौपदी को साथ लेकर हस्तिनापुर स ेचल पड़े। हस्तिनापुर से चलने से पूर्व धर्मराज युधिष्ठिर ने द्रौपदी से कहा- काल सर्वशक्तिमान है तथा समस्त प्राणियों पर उसका आधिपत्य है, वही समस्त प्राणियों का संहारक है।
हमारे आराध्य देव भगवान श्री कृष्ण भी काल के बंधन को स्वीकार कर अपने लोक परमधाम में जा पहुंचे हैं। अब हमें भी उनका अनुसरण करना चाहिए। द्रौपदी सहित उनके चारों भाइयों ने युधिष्ठिर की बात का समर्थन किया था। हस्तिनापुर की सीमा लंाघकर पाण्डव लाल सागर तट पर पहुंचे। इनके वहां पहुंचते ही अग्निदेव ने साक्षात् प्रकट होकर कहा- हे पाण्डु पुत्रों! यदि तुम सब मृत्यु का वरण करने का निश्चय कर जा रहे हो तो, अपने सभी अस्त्र-शस्त्र यहीं पर त्याग दो, अब आप लोगों उनकी कोई आश्यकता नहीं है। पाण्डवों ने अग्निदेव की बात सहर्ष स्वीकार कर ली और कठोर तपस्या द्वारा देवताओं से प्राप्त सभी अस्त्रों-शस्त्रों का वहीं त्याग कर दिया। लाल सागर तट से आगे बढ़कर उन्होंने देखा द्वारिका नगरी समुद्र में डूब रही है।
श्रेष्ठ सुमेरू पर्वत के दर्शन कर वे आगे बढ़ गये। पृथ्वी प्रदक्षिणा के उद्देश्य से कई देशों में घूमते हुए वे हिमालय को पार कर मेरूपर्वत की ओर बढ़ गये। सभी पाण्डव एकाग्रचित होकर भगवान का नाम स्मरण करते हुए तेजी से मार्ग तय कर रहे थे। सहसा मार्ग में द्रौपदी लड़खड़ाई और पृथ्वी पर निर्जीव होकर गिर पड़ी। यह देख महाबली भीम को बहुत दुःख हुआ, उन्होंने धर्मराज से पूछा- बड़े भैया! द्रौपदी तो अत्यन्त विदुषी स्त्री थी और पुण्यात्मा थी।
फिर वह इस तरह मृत्यु को प्राप्त हुई? युधिष्ठिर शान्त भाव से आगे बढ़ते हुए बोले- पांचों पाण्डवों की पत्नी होने पर भी, द्रौपदी का हृदय धनुर्धर अर्जुन की तरफ विशेष आकर्षित रहता था। यह उसी का दुष्परिणाम है। अभी वे कुछ ही दूर चले थे, तभी सहदेव मृत होकर गिर पड़े। भीम ने युधिष्ठिर से पूछा- बड़े भैया! सहदेव जैसे विद्वान को ऐसी मृत्यु क्यों प्राप्त हुई? धर्मराज बोले- सहदेव को अपनी विद्धता व पांडित्य पर बहुत घमण्ड था।
इसी कारण यह ऐसी मृत्यु को प्राप्त हुआ है। द्रौपदी व सहदेव को काल के मुख में समाता देख, नकुल शोकातुर हो उठे, शोकतुर हो उठे, शोक की अधिकता से नकुल निश्चेष्टा होकर पृथ्वी पर गिर पड़े। नकुल की ऐसी दशा देख भीम को बहुत दुःख हुआ। एक-एक कर सभी निर्जीव होते जा रहे थे। उसने पुनः युधिष्ठिर से प्रश्न किया- बड़े भैया! नकुल तो अत्यन्त रूपवान, धार्मिक व आज्ञापालक थे, फिर उनकी ऐसी गति क्यों हुई? युधिष्ठिर ने सहज भाव से उत्तर दिया- महाबली भीम! नकुल को अपने अद्भुत सौंदर्य पर बहुत अहंकार था, इसी कारण यह इस गति को प्राप्त हुआ।
भीम की तरह साथ चल रहे अर्जुन भी अपने प्रियजनों की मृत्यु पर शोकातुर हो रहे थे, सहसा उनके हृदय में तीव्र पीड़ा हुई और वे मरणासन्न होकर गिर पड़े। भीम ने जैसे ही अर्जुन की मृत्यु का कारण जानने हेतु धर्मराज से कुछ पूछना चाहा, युधिष्ठिर बोले- अर्जुन को भी अपने अत्यन्त पराक्रमी व निर्भीक होने पर बहुत अहंकार हो गया था। उसका यही मिथ्या अहंकर उनकी इस दुर्गति का कारण बना। युधिष्ठिर व भीम ऊंचे पर्वत पर चढ़ रहे थे, सहसा भीम भी नीचे गिर पड़े।
उनके प्राण निकलने में कुछ क्षण ही शेष थे, यह आभास कर भीम ने युधिष्ठिर से पूछा- भैया! कृपया कर बताइये, मैं तो आपका प्रिय अनुज था। फिर मैं क्यों इस अवस्था में पहुंचा? युधिष्ठिर ने सहज भाव से कहा- हे भीम! तुम्हें सदैव अपने उदर पोषण का ही ध्यान रहता था, साथ ही अपने बल पर अहंकार करने के कारण तुम इस गति को प्राप्त हो रहे हो। यह कहकर युधिष्ठिर स्थिर हृदय से आगे बढ़ गये और भीम ने प्राण त्याग दिये। तभी स्वयं देवराज इन्द्र रथ पर चढ़कर इन्हें लेने आ पहुंचे और इन्हें रथ पर चढ़ने के लिए कहा।
किन्तु युधिष्ठिर ने अपने भाइयों व प्रतिप्राणा देवी द्रौपदी के बिना अकेले रथ पर बैठना स्वीकार नहीं किया। तब इन्द्र ने इन्हें यह विश्वास दिलाया कि- वे सभी आपसे पहले स्वर्ग पहुंच चुके हैं। इन्द्र की बात पर विश्वास कर इन्होंने रथ पर चढ़ना स्वीकार किया, परन्तु इनके साथ एक कुत्ता भी था, जो शुरू से ही इनके साथ चलता रहा था। युधिष्ठिर ने चाहा कि वह कुत्ता भी उनके साथ चले, किन्तु इन्द्र ने आपत्ति जताई। इन्द्र की आपत्ति पर धर्मराज युधिष्ठिर ने स्पष्ट शब्दों में कहा- स्वामीभक्त्त कुत्ते को छोड़कर मैं अकेला स्वर्ग जाने को तैयार नहीं हूं।
यह कुत्ता कोई और नहीं था, स्वयं धर्म ही युधिष्ठिर की परीक्षा के लिए उनके साथ हो लिये थे। युधिष्ठिर की इस अनुपम शरणागत वत्सलता को देखकर वे अपने वास्तविक रूप में प्रकट हो गये और युधिष्ठिर को रथ में बैठाकर इन्द्र एवं अन्य देवताओं व देवर्षियों के साथ स्वर्गलोक में चले गये। उस समय देवर्षि नारद ने उनकी प्रशंसा करते हुए कहा- महाराज युधिष्ठिर से पूर्व कोई भौतिक शरीर से स्वर्ग आया हो, ऐसा सुनने में नहीं आया। स्वर्ग जाते हुए युधिष्ठिर ने नक्षत्रों एवं तारों को देवताओं के लोकों के रूप में देखा। फिर भी देवराज इन्द्र से उन्होंने यही कहा- जहां मेरे भाई-बन्धु तथा देवी द्रौपदी हो, वहीं मुझे ले चलिये। वहीं जाने पर मुझे शान्ति मिलेगी, अन्य कहीं नहीं।
जहां मेरे भाई नहीं हैं, वह स्वर्ग मेरे लिए किस काम का? आगे जाकर जब देवराज इन्द्र की माया से उन्हें नरक का दृश्य दिखाई पड़ा और वहां इन्होंने अपने भाइयों के कराहने व रोने की आवाज सुनी, साथ ही लोगों को इन्होंने यह भी कहते हुए सुना- महाराज! थोड़ा रूक जाइये, आपके यहां रहने से हमें नरक की पीड़ा नहीं सताती। तब वे वहीं रूक गये और जो देवदूत उन्हें वहां ले आया था, उससे वे बोले- हम तो यहीं रहेंगे, जब हमारे यहां रहने से इन जीवों को सुख मिलता है, तो यह नरक भी हमारे लिए स्वर्ग से बढ़कर है।
थोड़ी ही देर बाद वह दृश्य लुप्त हो गया और वहां इन्द्र आदि देवता आ पहुंचे। वे सब इनके इस सुन्दर भाव से बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने बताया- तुमने छल से गुरू द्रोणाचार्य को उनके पुत्र की मृत्यु का विश्वास दिलाया था। इसी कारण तुम्हें छल से नरक का दृश्य दिखाया गया था। तुम्हारे सब भाई दिव्य लोक में पहुंच गये हैं।
उसके बाद युधिष्ठिर भगवान के परमधाम में गये और वहां उन्होंने भगवान श्री कृष्ण के उसी रूप में दर्शन किये, जिस रूप में वे पहले उन्हें मृत्युलोक में देखते आये थे। वहीं पर श्री कृष्ण की परिचर्या करते हुए अर्जुन को भी देखा। अपने भाइयों तथा देवी द्रौपदी को भी उन्होंने अन्य स्थानों पर देखा। अन्त में वे अपने पिता धर्म के शरीर में प्रविष्ट हो गये। इस प्रकार युधिष्ठिर ने अपने धर्म के बल से दुर्लभ गति पायी।
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