Mahabharat Yudh me Hanuman ji ka Sahyog Mahabharat ki Kahani – श्री कृष्ण जब पाण्डवों की तरफ से सन्धि प्रस्ताव लेकर हस्तिनापुर पहुंचे तो दुर्योधन ने स्पष्ट कह दिया- मैं पाण्डवों को पांच गांव तो क्या सुई की नोंक के बराबर भी भूमि नहीं दूंगा। तब पाण्डवों के पास युद्ध करने के अतिरिक्त अन्य उपाय नहीं बचा था। शीघ्र ही दोनों पक्षों में युद्ध की तैयारियां शुरू हो गई। भीम को छोड़कर सभी पाण्डव भाई युद्ध के परिणाम को लेकर निश्चिन्त थे। सभी को श्री कृष्ण की असीम शक्ति पर विश्वास था।
ऐसा नहीं था कि भीम को उन पर विश्वास नहीं था, किन्तु उनका मानना था कि युद्ध में जय-पराजय का निर्णय शक्ति व पराक्रम द्वारा ही होगा। शत्रुओं का सामना करने के लिए मात्र श्री कृष्ण का आशीर्वाद ही नहीं, वरन् प्रलयकारी अस्त्रों-शस्त्रों व बाहुबली योद्धाओं की आवश्यकता होगी। जब वे अनेक महारथियों से सुसज्जित विशाल-कौरव सेना का ध्यान करते तो उनके मन में यह विचार उत्पन्न होता कि काश हमारी ओर से भी कुछ और महाबली योद्धा-युद्ध में भाग लेते, तो अवश्य ही हमारी सैन्य क्षमता सुदृढ़ होगी।
ऐसे ही विचारों में खोए भीम को सहसा ध्यान आया….एक बार उन्होंने माता कुन्ती के मुख से सुना था- पवनपुत्र हनुमान एक नाते में भीम के बड़े भाई लगते हैं। भीम ने सोचा- यदि हनुमान जी! युद्ध में हमारा साथ दे, तो बहुत अच्छा होगा। यह हनुमान जी के बल-पराक्रम का ही परिणाम था, जो श्रीराम लंका पर विजय प्राप्त कर सके।
रामायण में यह स्पष्ट है कि यदि हनुमान जी ने श्रीराम की सहायता न की होती तो उनका रावण को मारकर लंका पर विजय प्राप्त करना सरल न होता। कहां मिलेंगे हनुमान जी? कहां ढूंढू उन्हें? भीम चिन्तित थे।
तभी युधिष्ठिर की दृष्टि उन पर पड़ी, वे भीम के समीप आकर बोले- क्या बात है, महाबली? क्या तुम्हारे भोजन आदि की व्यवस्था में कोई विघ्न आ गया है, जो इस प्रकार गुमसुम बैठे हो? युधिष्ठिर के वचनों को सुन भीम तत्परता से बोला- बड़े भइया! क्या आप जानते हैं कि हनुमान जी कहां मिलेंगे? भीम के प्रश्न पर युधिष्ठिर चैंके।
वे समझ नहीं पाये कि सदैव खाने-पीने व व्यायाम में मग्न रहने वाले भीम को अचानक हनुमान जी का कैसे ध्यान आ गया? वे हंसते हुए बोले- तुम्हें क्या काम पड़ गया हनुमान जी से। क्या कोई कदली वन (केले का बाग) उजड़वाना है उनसे, खाने के लिए? भीम गम्भीर स्वर में बोले- बड़े भइया! मैं उपहास नहीं कर रहा? कृपया, यदि आप जानते हैं, तो मुझे शीघ्र बताइये। भीम की गम्भीर मुद्रा देख युधिष्ठिर समझ गये कि अवश्य ही कोई विशेष बात है, जब ही भीम हनुमान जी के विषय में पूछ रहे हैं।
कुछ सोचकर वे बोले- हनुमान जी का निवास स्थान गंधमादन पर्वत पर है। माता-पिता से सशरीर अमरता का वरदान प्राप्त करने के बाद से ही वे भौतिक संसार से विरक्त हो, सदैव राम-नाम का स्मरण करते हुए गंधमादन पर्वत पर ही रहते हैं। युधिष्ठिर की बात सुन भीम ने अपनी गदा संभाली और गंधमादन पर्वत पर जा पहुंचे। उस पर्वत पर दुर्गम वन क्षेत्र था।
आस-पास की झाड़ियों व वृक्षों को उखाड़ते, भीम अपना रास्ता बनाते हुए आगे बढ़ते जा रहे थे। जंगल में भयानक हिंसक पशु भरे थे, परन्तु भीम के दृढ़ निश्चय के समक्ष वे उनका बाल भी बांका न कर सके।
भूख-प्यास की चिन्ता किए बिना आगे बढ़ते भीम एक ऐसे स्थान पर पहुंचे जो विशाल केले के वृक्षों से घिरा था। उस स्थान पर भीम ने देखा, एक वानर अपने पैर पसारकर तथा हाथों का तकिया बनाये, मार्ग के बीचों-बीच लेटा है, उसकी लम्बी पूंछ भी मार्ग के बीचों-बीच कुछ इस तरह फैल थी कि उसे लांघे बिना आगे बढ़ना असम्भव था।
भीम ने उस वानर को रास्ता छोड़ने के लिए कहा, परन्तु वह वानर बड़े आराम से लेटा, समीप रखे केले के गुच्छे से केले तोड़-तोड़कर खाता रहा। भीम को उस पर बड़ा क्रोध आया, वे बोले- अरे तूने सुना नहीं, क्यों मेरा समय खराब कर रहा है।
वानर ने भीम की ओर देख कहा- व्यर्थ क्यों चिल्लाते हो भाई! लगता है कहीं दूर से आ रहे हो, लो तुम भी केले खाओ। भीम झल्लाते हुए बोला- अरे, मैं तुझे मार्ग छोड़ने के लिए कह रहा हूं और तू है कि मुझे ही केले खाने को कह रही है। भाई अब मैं वृद्ध हो गया हूं, बड़ी कठिनता से लेट पाया हूं, यदि तुम्हें आगे जाना ही है तो मुझे लांघकर चले जाओ।
वानर ने शान्त स्वर में कहा। भीम बोले- क्या तुम इतना भी नहीं जानते बिल्ली या वानर का मार्ग में पड़ना भी अशुभ होता है और तुम लांघन की बात करते हो। चलो ऐसा करो तुम पूंछ ही समेट लो।
वानर ने अपनी असमर्थता जताते हुए कहा- तुम ही हटा दो। भीम ने अपनी गदा संभाली और उससे वानर की पूंछ हटाने लगा। परन्तु जिस गदा से भीम ने न जाने कितनी विशाल चट्टानों को धकेल था, वह गदा वानर की पूंछ तो सूत भर भी सरका न सकी और तो और गदा ही पूंछ के नीचे दब गई।
भीम ने गदा खींचने का बहुत प्रयास किया, किन्तु सफल न हो सके। क्या हुआ महाबली! वानर उपहासजनक शब्दों में बोला- तुम तो मेरी पूंछ हटाने चले थे, अपनी गदा ही गंवा बैठे। भीम के क्रोध में मानो घी पड़ गया- दुष्ट वानर! तू क्या सोचता है, इन छोटी-छोटी बाजीगरी से तू मेरा सामना कर लेगा? ठहर मैं तेरी पूंछ को क्या तुझे ही उठाकर फेंक देता हूं।
इतना कहकर भीम वानर के पैर पकड़ उठाने लगे, परन्तु भीम जिसमें हजारों हाथियों का बल था, अपनी एड़ी-चोटी तक का जोर लगाने पर भी वानर को टस से मस न कर सके। उनका शरीर पसीनों से नहा उठा, सांसे फूलने लगी। भीम ने सोचा- अवश्य ही यह वानर मायावी राक्षस है, अन्यथा एक वानर में इतनी शक्ति कदापि नहीं हो सकती कि मुझ जैसा बलवान इसके समक्ष शक्तिहीन हो गया। भीम को सोच में पड़ा देख वानर बोला- क्या सोच रहे हो महाबली भीम! तुम तो महाबलशाली हो।
बकासुर जैसे दैत्य को तुमने चुटकी में मार डाला। न जाने कितने पर्वतों को उखाड़ फेंकना तुम्हारे लिए तुच्छ कार्य है। आज तुम्हारा सौ-सौ हाथियों का बल कहां चला गया? जो एक वृद्ध वानर को हिला न सके? वानर के मुख से अपना नाम सुनकर भीम चैंक पड़े। वे सोचने लगे- भला इस वानर को मेरा परिचय कैसे ज्ञात हुआ? अवश्य ही यह कोई साधारण वानर नहीं है।
यह सोचकर भीम ने तत्काल अपने हाथ जोड़ वानर को प्रणाम कर पूछा- हे कपिराज! आपने मेरे बिना बताये ही जिस प्रकार मेरा परिचय जान लिया और अपनी शक्ति के समक्ष मुझे निर्बल सिद्ध कर दिया, इससे प्रतीत होता है कि अवश्य ही आपको पहचानने में मुझसे कोई भूल हुई है। कृपया, मुझे अपना वास्तविक परिचय देकर मेरी शंका का निवारण कीजिए।
भीम के कहते ही वानर मुस्कुराकर उठे और पलक झपकते ही उनके स्थान पर सोने के पर्वत के समान विशाल शरीर के स्वामी पवनपुत्र हनुमान दिखाई देने लगे। हनुमान जी को पहचान, भीम उनके चरणों में गिर पड़े और अपनी धृष्टता के लिए उनसे क्षमा याचना करने लगे।
हनुमान जी ने उठाकर बड़े प्रेम से उन्हें अपने हृदय से लगा लिया- मुझे ज्ञात हो गया था कि तुम मुझसे भेंट करने आ रहे हो, किन्तु जब मैंने यह जाना कि मेरे छोटे भाई के मन में अहंकार उत्पन्न हो गया है, तो मैंने सोचा क्यों न पहले इस बुराई को ही खत्म कर दूं। भीम ने उनसे पुनः क्षमा याचना की।
तत्पश्चात् श्री हनुमान जी ने उन्हें फलाहार कराया। जब भीम ने उन्हें अपने आने का प्रयोजन बताया तो हनुमान जी सोच में पड़ गये। उन्होंने भीम से कहा- हे अनुज! तुमसे मिलकर मुझे अपार प्रसन्नता हो रही है, किन्तु मैं तुम्हारा यह प्रस्ताव स्वीकार नहीं कर सकता। लंका युद्ध में हुए भीषण रक्त-पात को देखने के बाद मैंने आजीवन अस्त्र-शस्त्र न उठाने का प्रण कर लिया था।
अब श्रीराम नाम का जाप करना ही मेरा एकमात्र लक्ष्य है। किन्तु तुम मेरे छोटे भाई हो और पहली बार मेरे पास किसी कार्य से आये हो। अतः मैं इतना कर सकता हूं कि जितने दिनों तक महाभारत का युद्ध चलेगा, मैं अर्जुन के रथ पर लगी अपने चित्र द्वारा चिन्हित ध्वजा में वास करूंगा, किन्तु अस्त्र-शस्त्र नहीं उठाऊंगा।
हनुमान जी की बात सुनकर भीम कुछ उदास स्वर में बोले- जब आप युद्ध ही नहीं करेंगें, तब अर्जुन के रथ की ध्वजा में वास करने से क्या होगा? हनुमान जी मुस्कुराकर बोले- चिन्ता न करो अनुज! निश्चिन्त होकर जाओ। प्रभु श्रीराम की कृपा से जो कुछ भी होगा अच्छा ही होगा।
हनुमान जी से विदा लेकर भीम वापस लौट आये। महाभारत का भीषण युद्ध पूरे अट्ठारह दिन चला । इस युद्ध में प्रलयकारी अस्त्रो-शस्त्रों का जमकर प्रयोग हुआ। जन-धन की अपार क्षति हुई। इस युद्ध में कौरव पराजित हुए और पाण्डवों की विजय हुई। युद्ध समाप्ति पर सभी योद्धा युद्ध भूमि से प्रस्थान कर गये। अर्जुन भी श्री कृष्ण के साथ रथ से उतरे।
जैसे ही वे रथ से उतरे रथ जलकर भस्म हो गया। सभी पाण्डव आश्चर्यचकित हो गये। अर्जुन ने श्री कृष्ण से इसका कारण पूछा, तो श्री कृष्ण ने मुस्कुराते हुए बताया- यह सब पवनपुत्र हनुमान जी की शक्ति का पराक्रम है , जब तक युद्ध चला, तब तक हनुमान जी ध्वजा में विराजमान रहे।
उनकी शक्ति के कारण ही तुम सुरक्षित थे। भयंकर अस्त्रों व शस्त्रों की मार से तुम व रथ जलकर भस्म हो गये होते, परन्तु श्री हनुमान जी की शक्ति द्वारा ही ऐसा नहीं हुआ। भीम को दिये आश्वासन के अनुरूप ही युद्ध की समाप्ति पर हनुमान जी रथ से चले गये। तुम्हारे उतरते ही यह रथ भस्म हो गया। इस रहस्योद्घाटन से सभी विस्मित रह गये।
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