Guru Bhakt Eklavya ki Kahani – गुरू द्रोणाचार्य शस्त्र विद्या के महान ज्ञाता थे। समस्त प्रकार के अस्त्रों-शस्त्रों के संचालन व युद्ध विद्या का जितना ज्ञान उन्हें था, उनके समान किसी आचार्य को नहीं था। विशेषकर धनुर्विद्या के तो वे महान ज्ञाता थे। यही कारण था कि बड़े राजा महाराजा और क्षत्रिय अपने राजकुमारों को उनके आश्रम में विद्या प्राप्त करने भेजते थे।
द्रोणाचार्य को इन राजवंशों से इतना सम्मान मिला था कि उन्होंने निश्चय किया था कि राजकुमारों या क्षत्रियों के अतिरिक्त अन्य किसी को वे अपनी विद्या नहीं सिखायेंगें। प्राचीन काल में शास्त्र विद्या के साथ-साथ शस्त्रविद्या का भी बहुत महत्व था। राजकुमारों व क्षत्रिय कुमारों के लिए तो शस्त्र विद्या का ज्ञान अर्जित करना और भी अत्यन्त आवश्यक माना जाता था ।
कुरू वंश के कुमारों यानि पाण्डवों व कौरव भाइयों के लिए भी शस्त्र विद्या सीखने को समुचित प्रबन्ध किया गया था। उनको शस्त्र विद्या सिखाने का दायित्व गुरू द्रोणाचार्य पर ही था। एक दिन गुरू द्रोणाचार्य अपने शिष्यों को युद्धाभ्यास करा रहे थे कि उनकी दृष्टि आश्रम के द्वार के निकट खड़े एक भील बालक पर पड़ी।
द्रोणाचार्य ने ध्यान दिया कि पिछले कुछ दिनों से वह भील कुमार उसी स्थान पर आ खड़ा होता है और चुपचाप आश्रम की गतिविधियाँ देखता रहता है। पहले तो उन्होंने सोचा कि वह वैसे ही कोई वनबासी बालक है, जो घूमता हुआ वहां आ गया है, परन्तु जब वह प्रतिदिन नियमपूर्वक आने लगा तो वे यह जानने को उत्सुक हो उठे कि- वह भील कुमार कौन है? और यहां आकर क्या देखता है? कुछ सोचकर द्रोणाचार्य ने आश्रम के एक सेवक द्वारा उसे बुलाया। कुछ डरा-सहमा वह भील कुमार गुरू द्रोणाचार्य के सम्मुख आ खड़ा हुआ।
सांवला रंग, दुबला-पतला शरीर, अंगों पर धूल मिट्टी की पर्त जमी हुई, वस्त्रों के नाम पर पेड़ों की छाल से बनी लंगोटी और गले में पड़ा ताबीज! द्रोणाचार्य उस भील कुमार को गौर से देख रहे थे, साथ ही वह उनके शिष्यों का भी दृष्टि केन्द्र बना हुआ था। तुम कोन हो? यहां आश्रम के पास खड़े होकर क्या देखते हो? गुरू द्रोणाचार्य ने उससे पूछा।
बालक ने अपने दोनों हाथ जोड़कर द्रोणाचार्य को प्रणाम किया और बड़ी शिष्टता से बोला- गुरूदेव! मेरा नाम एकलव्य है। मैं भीलराज हिरण्यधनु का पुत्र हूं। मुझे धनुष बाण चलाना अति प्रिय है। एक बार मेरे पिता ने बताया था कि आप बहुत अच्छा धनुष बाण चलाना जानते हैं और सिखाते भी हैं। मैं प्रतिदिन यहां यही सोचकर आता था कि आपसे धनुर्विद्या सीखूंगा। किन्तु आपसे कहने का साहस न कर सका।
आज आपने स्वंय ही मुझे बुला लिया तो मैंने आपको बता दिया। आप मुझे धनुर्विद्या सिखायेंगें ना? एकलव्य की बात सुनकर द्रोणाचार्य जहां सोच में पड़ गये, वहीं उनके शिष्य उस भील कुमार की बात पर खिलखिलाकर हँस पड़े। इसकी कमी और रह गई थी यहां धनुर्विद्या सीखने की। एक शिष्य ने कहा। अरे इसका साहस तो देखो, कितनी सरलता से हमारे आचार्य से कह रहा है कि वे इसे धनुर्विद्या दें।
दुर्योधन यह कहकर हँस पड़ा। अर्जुन जो कि द्रोणाचार्य का सर्वाधिक प्रिय शिष्य था। वह भी भीलकुमार की बात सुनकर बुरा-सा मुँह बनाने लगा। द्रोणाचार्य ने अपने शिष्यों को उनके इस व्यवहार पर डांटते हुए कहा- शान्त हो जाओ, तुम्हें यह सब शोभा नहीं देता कि किसी का इस प्रकार उपहास उड़ाओ।
द्रोणाचार्य के कठोर शब्द सुनकर वे सभी चुप हो गये, परन्तु उनकी दृष्टि अपने गुरू और एकलव्य पर ही जमी थी। वे सभी यह जानने को उत्सुक हो उठे कि द्रोणाचाय्र उसे क्या उत्तर देंगें? द्रोणाचार्य ने बड़े स्नेह से एकलव्य से कहा- वत्स! मुझे खेद है, कि तुम्हारी धनुर्विद्या सीखने की इच्छा यहां पूरी नहीं हो सकती। मैं केवल राजकुमारों और क्षत्रियों को ही शस्त्र चलाना सिखलाता हूं, किसी अन्य हो नहीं। अच्छा होगा कि तुम अपने घर लौट जाओ।
मैं तुम्हारे पिता भीलराज हिरण्यधनु से परिचित हूं। वे अवश्य ही तुम्हारे लिए किसी योग्य शिक्षक का प्रबन्ध करा देंगे, जिनसे तुम धनुर्विद्या सीख सको। द्रोणाचार्य की बात सुनकर एकलव्य उदास हो गया, फिर वह बोला- पूज्य आचार्य! जिस दिन मैंने अपने पिता से आपकी धनुर्विद्या की प्रशंसा सुनी थी, मैंने तभी प्रतिज्ञा की थी कि मैं आपसे ही धनुर्विद्या सीखूंगा और एक श्रेष्ठ धनुर्धर बनूंगा।
अब आप ही बतायें कि मैं क्या कंरू? वत्स! तुम्हारा कहना अपनी जगह सही है, किन्तु मुझे खेद है, मैं तुम्हारी कोई सहायता नहीं कर सकता। फिर एक बात और भी है, तुमने अभी कहा कि तुम श्रेष्ठ धनुर्धर बनना चाहते हो, तो हे वत्स! यह विचार तुम अपने मन से निकाल ही दो। मैं भी प्रतिज्ञा कर चुका हूं कि मैं अपने शिष्य अर्जुन को ही इस संसार का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बनाऊंगा।
अब यदि मैं तुम्हें धनुर्विद्या सिखा भी दूं, तब भी तुम्हारी श्रेष्ठ धनुर्धर बनने की इच्छा कभी भी पूरी न हो सकेगी। अच्छा होगा कि तुम ये विचार अपने मन से निकालकर अपने घर लौट जाओ। द्रोणाचार्य की इन बातो ने एकलव्य की सारी आशाओं पर पानी फेर दिया। उसने एक बार वहां खड़े उन कुमारों को देखा, जो उपहास उड़ाती दृष्टि से उसे घूर रहे थे तथा फिर एक बार डबडबायी नजरों से द्रोणाचार्य को देखा, उन्हें प्रणाम क रवह वापस लौट गया।
द्रोणाचार्य ने एकलव्य को लौटा तो दिया था, परन्तु उसके चेहरे के हाव भाव देख तथा उसकी बातें सुन उन्हें ऐसा लगा कि उन्होंने यह उचित नहीं किया, परन्तु अपनी जगह वह भी विवश थे और कर भी क्या सकते थे। एकलव्य भारी मन से अपने घर की तरफ चला जा रहा था, किन्तु उसके मन में तरह तरह की बातें उभर रही थीं- पिताजी ने भी कहा था द्रोणाचार्य तुम्हें कभी धनुर्विद्या नहीं सिखायेंगे, किन्तु मैंने उनकी बात नहीं मानी।
इससे तो आचार्य मुझसे न पूछते, तो मैं उन्हें अपने मन की बात कभी नहीं बताता। एक आशा तो थी, आज वह भी समाप्त हो गई। अब मैं किस मुहं से वापस जाऊं । अपने संगी-साथियों से बड़े गर्व से कहकर निकला था कि आचार्य द्रोण से धनुर्विद्या सीखकर ही घर लौटूंगा। अब उन्हें क्या उत्तर दूंगा? अपने इन्हीं विचारों में उलझे एकलव्य की समझ में नहीं आ रहा था कि वह अब क्या करें? सहसा, उसके मस्तिष्क में एक विचार कौंधा।
वह अपने आपसे बोला- क्या हुआ जो आचार्य द्रोण ने मुझे अपना शिष्य बनाने से मना कर दिया? मैंने तो मन ही मन उन्हें अपना गुरू मान ही लिया है। उसने तत्काल मन ही मन एक संकल्प किया और अपने घर का मार्ग छोड़ वह एक अपरिचित मार्ग पर वन की ओर चल दिया। वन में एक उपयुक्त स्थान देखकर उसने पेड़-पौधों की पत्तियों व खरपच्चियों से एक कुटिया तैयार की।
उसके बाद वहीं धरती से मिट्टी खोदकर अपनी कल्पना से आचार्य द्रोण की एक प्रतिमा बनाकर, उसकी विधिवत् ढंग से स्थापना कर दी। वन से ही फल-फूल आदि लाकर उसने आचार्य द्रोण की प्रतिमा की पूजा-अर्चना की। तत्पश्चात् बांस की खरपच्ची का धनुष व सरकण्डों के नुकीले बाण बनाकर उससे धनुर्विद्या का अभ्यास करना आरम्भ कर दिया।
अब तो उसका एक ही नियम और एक ही लक्ष्य बन गया था , निरन्तर अभ्यास करना तथा श्रेष्ठ धनुर्धर बनना। सुबह से लेकर शाम होने तक वह बिना कुछ खाए-पिये धनुर्विद्या के अभ्यास में लगा रहता। सर्दी, गर्मी, धूप, बरसात की उसे बिल्कुल परवाह नहीं थी। अभ्यास आरम्भ करने से पूर्व व बाद में वह आचार्य द्रोण की प्रतिमा की पूजा-अर्चना करना नहीं भूलता था।
एकलव्य के इस कठिन अभ्यास तथा अपने गुरू के प्रति उसकी समर्पित भावना का परिणाम यह हुआ कि दिन-प्रतिदिन उसकी धनुर्विद्या में निखार आता गया। इस प्रकार एकलव्य को अभ्यास करते-करते कई माह बीत गये। एक दिन की बात है, एकलव्य अपने लक्ष्य पर बाण का निशाना साध ही रहा था कि एक कुत्ते के भौंकने की आवाज से उसका ध्यान भंग हो गया।
एकलव्य ने उस कुत्ते को डरा-धमकाकर भगाना चाहा, किन्तु वह कुत्ता नहीं भागा, उसी तरह भौंकता रहा। तब एकलव्य ने क्रोधित होकर कुत्ते के मुहं को बाणों से इस प्रकार बींध दिया कि उसके कोई घाव तो नहीं हुआ, किन्तु उसका भौंकना बन्द हो गया। इस स्थिति से घबराकर कुत्ता जिस दिशा से आया था, उस ओर भाग गया। वास्तव में वह कोई साधारण जंगली कुत्ता नहीं था, यह कौरव-पाण्डव कुमारों का पालतू शिकारी कुत्ता था।
वे सभी अपने गुरू द्रोणाचार्य के साथ वन में शिकार करने आये थे। जब कुत्ता उनके पास पहुंचा, तो उसकी यह दशा देख सभी आश्चर्यचकित रह गये। कुत्ते का मुहं जिस कुशलता से बाणों द्वारा बन्द किया गया था, वह निश्चित रूप से किसी महान धनुर्धर का काम था। द्रोणाचार्य उसे देखकर सोचने लगे- बाणों की ऐसी अद्भुत कला तो मेरे होनहार शिष्य अर्जुन को भी नहीं आती, फिर इस वन में ऐसा कौन धनुर्धर आ गया, जो अर्जुन से भी आगे निकल गया?
यह जानने के लिए कि यह किसने किया? वे राजकुमारों के साथ उस धनुर्धर की खोज में निकल पड़ें। कुछ ही दूर चलने पर उनकी दृष्टि एकलव्य पर पड़ी, जो बड़ी तल्लीनता से धनुर्विद्या का अभ्यास कर रहा था। द्रोणाचार्य एकलव्य को पहचान गये। उन्होंने उसके पास जाकर बड़े स्नेह से पूछा- वत्स एकलव्य! तुम तो बहुत कुशल धनुर्धर हो गये। किससे सीखी तुमने ऐसी अचूक धनुर्विद्या?
एकलव्य ने अपने सामने द्रोणाचार्य को खड़े देखा तो बड़े आदर से उनके चरण स्पर्श किये और बोला- आदरणीय गुरू द्रोणाचार्य से ही मैंने धनुर्विद्या सीखी है। यह सुनकर आचार्य द्रोण सहित सभी राजकुमार भी चैंक गये। मुझसे? आचार्य द्रोणाचार्य हैरान होकर बोले- मैंने कहां सिखाई तुम्हें यह धनुर्विद्या? तब एकलव्य ने उन्हें उनकी प्रतिमा दिखाई और सारी बात बता दी।
अब तक एकलव्य की बात सुनकर हैरत में पड़े द्रोणाचार्य उसकी लगन व गुरू-भक्ति देख बहुत प्रसन्न हुए। आज तक उन्होंने ऐसा दृढ़ प्रतिज्ञ किशोर नहीं देखा था। उन्हें इस बात का दुःख था कि उन्होंने ऐसे प्रतिभावान शिष्य को लौटा दिया था। सहसा उनके मन में विचार आया- मैंने प्रतिज्ञा की थी कि अर्जुन को संसार का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बनाऊंगा, परन्तु एकलव्य तो अर्जुन से कई गुणा अधिक श्रेष्ठ जान पड़ता है।
अब मेरी प्रतिज्ञा का क्या होगा? कुल पल विचार कर उन्होंने एक निर्णय लिया। वे बोले- वत्स एकलव्य! जब तुमने मुझे अपना गुरू मान ही लिया है, तब मैं तुम्हें अपना शिष्य स्वीकार करता हूं। क्या तुम अपने गुरू को गुरू-दक्षिणा नहीं दोगे? क्यों नहीं गुरूदेव? आप आज्ञा दीजिए। एकलव्य ने प्रसन्न हो अपने हाथ जोड़कर सिर झुका दिया।
तब तुम मुझे अपने दायें हाथ का अंगूठा काटकर दे दो, यही मेरी गुरू-दक्षिणा होगी। किसी प्रकार साहस करके गुरू द्रोणाचार्य ने कहा। उनका इतना कहना था कि एकलव्य ने बड़ी फुर्ती से अपनी कमर में खोंसी कटार निकाली और बिना झिझके अपना दायां अंगूठा काटकर द्रोणाचार्य के चरणों में रख दिया।
यह दृश्य देखकर वहां खड़े सभी राजकुमार स्तब्ध रह गए। उन्होंने कभी सोचा ही नहीं था कि कोई ऐसी गुरू-दक्षिणा भी देने का साहस रखता होगा। द्रोणाचार्य ने कांपते हाथों से अपनी गुरू-दक्षिणा ग्रहण की तथा गद्गद् होकर एकलव्य को सीने से लगा लिया। इस समय द्रोणाचार्य सहित सभी राजकुमार उस भील कुमार के समक्ष स्वंय को बौना अनुभव कर रहे थे।
धनुर्विद्या में दायें हाथ का अंगूठा ही सब कुछ होता है। बिना उसके बाण नहीं छोड़ा जा सकता। एकलव्य का यह त्याग देखकर द्रोणाचार्य सहित कोई भी कुछ न बोल सका। सभी लोग पराजितों का भाव लेकर वहां से लौट गये। यह अटल सत्य है कि द्रोणाचार्य ने एकलव्य का अंगूठा न मांगा होता तो महाभारत में अर्जुन को कभी श्रेष्ठ धनुर्धर कहकर नहीं पुकारा जाता।
और पढ़े